मूक सिनेमा में संवाद नहीं होते, उसमें दैहिक अभिनय की प्रधानता होती है। पर जब सिनेमा बोलने लगा तो उसमें अनेक परिवर्तन हुए। उन परिवर्तनों को अभिनेता, दर्शक और कुछ तकनीकी दृष्टि से पाठ का आधार लेकर खोजें, साथ ही अपनी कल्पना का भी सहयोग लें।

1931 में निर्माता निर्देशक अर्देशिर ने पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनाकर भारतीय सिनेमा में नए युग की शुरुआत की थी। मूक फिल्मों में सिर्फ अभिनय दिखता था। आवाज या डायलॉग नहीं होते थे। जब पहली बोलती फिल्म आई तो भारतीय सिनेमा में कई परिवर्तन हुए। इस परिवर्तन में अभिनेता, दर्शक, संगीत और तकनीकी दृष्टि महत्वपूर्ण थी।

जब पहली बोलती फिल्म बनी तो उसमें एक पारसी नाटक के गाने ज्यों के त्यों उठा लिए गए। अर्देशिर ने फिल्म के लिए अपनी धुनें चुनीं। सिर्फ तीन वाद्य यंत्र तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल कर गाने बनाए गए। यहीं से पार्श्व गायन की भी शुरुआत हुई।


मूक फिल्मों में काम करनेवाले नायक पहलवान जैसे होते थे। उन्हें अपने शरीर से एक्टिंग, स्टंट और उछल कूद करनी होती थी। वहीं बोलते सिनेमा में इन्हीं अभिनेताओं को संवादकला में निपुण होना आवश्यक हो गया। इसके अलावा गायन की योग्यता रखनेवाले अभिनेताओं की कद्र बढ़ गई।


जब आलम आरा फिल्म को दर्शकों ने बहुत पसंद किया। बोलने वाली फिल्म को देखने वाले दर्शक भी अलग थे। इसके बाद से सवाक् फिल्मों में लोगों की रुची बढ़ती गयी| इस उमड़ती भीड़ को नियंत्रित करना पुलिस के लिए कठिन होता था। सवाक् सिनेमा दर्शकों के लिए नया अनुभव था।


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